असरानी: हंसी की रागिनी और अभिनय का उजास

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हास्य किसी को छोटा नहीं ,बल्कि कठिनाइयों को हल्का करता है

भारतीय सिनेमा के विशाल आकाश में कुछ सितारे ऐसे होते हैं, जो भले ही मुख्य नक्षत्रों की तरह चमकते न दिखाई दें, पर उनकी रौशनी दशकों तक समय के परदे पर टिकी रहती है। ऐसे ही एक अनमोल सितारे थे गोवर्धन असरानी—जिन्हें पूरी दुनिया प्यार से सिर्फ “असरानी” कहती थी। उनका अभिनय, उनकी मुस्कान और उनके संवाद आज भी भारतीय सिनेप्रेमियों के दिलों में रचे-बसे हैं।

असरानी का जन्म जयपुर की सांस्कृतिक धरती पर हुआ था। बचपन से ही वे रंगमंच और नकल की ओर आकृष्ट थे। विद्यालय में जब वे अध्यापकों या मित्रों की नकल उतारते, तो सब ठहाके लगाते। वही ठहाके आगे चलकर उनके जीवन की पहचान बनी। कला की खोज उन्हें मुंबई तक ले आई, जहां उन्होंने पुणे के फिल्म एंड टेलीविज़न इंस्टीट्यूट (FTII) से अभिनय की विधा सीखी। यही प्रशिक्षण उनकी अभिनय-यात्रा का सशक्त आरंभ बना।

सत्तर के दशक में असरानी ने फिल्मी परदे पर कदम रखा।एक ऐसे समय में जब ट्रैजेडी, ऐक्शन और मेलोड्रामा का बोलबाला था। पर उन्होंने अपनी राह अलग चुनी। उनकी मुस्कान में आम आदमी की सादगी थी, उनकी आंखों में जीवन का व्यंग्य और उनके स्वरों में संगीत की मिठास। उन्होंने दर्शकों को हंसाया भी और सोचने पर मजबूर भी किया। हास्य उनके लिए केवल मनोरंजन नहीं था, बल्कि समाज की विसंगतियों पर व्यंग्य करने का माध्यम था।

“शोले” में निभाया गया उनका किरदार आज भी भारतीय सिनेमा के इतिहास में अमर है। एक तरफ गब्बर का भय था, तो दूसरी ओर असरानी का हास्य। उस गंभीर कथा में उनका चरित्र जैसे एक ताज़ा हवा का झोंका था। उनकी संवाद-अभिव्यक्ति— ‘मैं तो अंग्रेजों के ज़माने का जेलर हूं’—ने न केवल लोगों को हंसाया बल्कि एक युग की स्मृति को सहेजने का माध्यम बन गया। इस एक वाक्य ने उन्हें अमर कर दिया।

उनका अभिनय केवल हंसी का तकियाकलाम नहीं था, बल्कि मानवीय भावनाओं का गहराई से चित्रण था। उन्होंने ‘चली मेरे भाई’, ‘अभिमान’, ‘बावर्ची’, ‘रोटी’, ‘चुपके-चुपके’ जैसी फिल्मों में ऐसे किरदार जिए जो दर्शकों के दिल से जुड़े रहे। उनकी स्क्रीन उपस्थिति कभी भी हल्की नहीं लगती थी, चाहे वे सहायक कलाकार हों या हास्य-चरित्र का नेतृत्व कर रहे हों।

असरानी की सबसे बड़ी विशेषता थी उनकी बहुरूपता। वह किसी भी चरित्र में ढल जाते थे। कभी भोला मुंशी, कभी चालाक नौकर, तो कभी सादा-सीधा आम भारतीय। उनके अभिनय में कोई बनावटीपन नहीं था। उनकी आंखें बोलती थीं, हावभाव कहानी कहते थे और मुस्कान में पूरी पटकथा छिपी रहती थी।

हर सीन में वे दर्शकों से संवाद बनाते थे, मानो कैमरा और दर्शक के बीच की दूरी मिट जाती हो। वे मनोरंजन के साथ संवेदनशीलता भी छोड़ जाते थे। एक ऐसा प्रभाव जो भारतीय हास्य की परंपरा में शायद ही किसी और कलाकार ने छोड़ा हो। अपने जीवन के उत्तरार्ध तक असरानी ने सैकड़ों फिल्मों और टीवी शोज़ में काम किया, लेकिन हर बार नई ताजगी लेकर आए।

उनकी रचनात्मक आत्मा में लोक-संस्कृति और मंच की सजीवता थी। उन्होंने कई बार कहा कि “हास्य किसी को छोटा नहीं करता, बल्कि जीवन की कठिनाइयों को हल्का कर देता है।” यही दर्शन उनके अभिनय का केंद्र था। एक ऐसा दर्शन जिसमें हंसी, जीवन की थकान मिटाने का औषध बन जाती है।

 

फिल्मी दुनिया में असरानी को कभी शोर-शराबे या विवादों की ज़रूरत नहीं पड़ी। वे अपने सादे जीवन, सुघड़ अभिनय और सहज विनम्रता के लिए जाने गए। पर्दे के पीछे भी वे उतने ही सरल और मोहक थे जितने स्क्रीन पर। चाहे साथी कलाकार हों या तकनीकी कर्मचारी—हर कोई उनके मिलनसार स्वभाव का कायल था।

आज जब असरानी हमारे बीच नहीं हैं, तो भारतीय सिनेमा एक मृदुल आवाज़, एक चिर-परिचित मुस्कान और एक जीवंत अभिनय से वंचित हो गया है। पर उनके संवाद, उनके चरित्र और उनकी लोक-हंसी अब भी अमर हैं। वे हर परिवार के किसी न किसी किस्से में बसे हैं—कहीं टीवी पर हंसी के ठहाके में, कहीं पुरानी फिल्मों की याद में।

असरानी चले गए, पर उनका “अंग्रेजों के ज़माने का जेलर” अब भी हमारे भीतर मुस्कराता है। हंसाता है, रुलाता है, और हमें याद दिलाता है कि सिनेमा केवल कहानी नहीं, बल्कि जीवन की अभिव्यक्ति है। और असरानी उस अभिव्यक्ति के सबसे रंगीन कलाकार थे।

 

डॉ सुनील कुमार

असिस्टेंट प्रोफेसर जनसंचार विभाग, वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय जौनपुर

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