एक वो समय था जब मध्यमवर्गीय से लेकर उच्च वर्गीय परिवार में तख्ते व बेड का नामोनिशान नहीं था। चारों तरफ “चारपाई” का ही वर्चस्व था। किसान लोग जब खेत से थके लौटते थे तो यही चारपाई उनके थकान मिटाने का सहारा हुआ करती थी। कामकाजी लोग जब शाम को घर लौटते थे तो इसी चारपाई पर लेटकर अपना मानसिक तनाव कम करते थे। उस समय यही चारपाई उन्हें स्पंज के गद्दे के समान सुख प्रदान किया करती थी।
चारपाई को पलंग, खटिया, खाट, खटोला, बसेहटा, कंजी, इत्यादि नामों से भी जाना जाता है। चारपाई की निर्माण प्रक्रिया बड़ी ही सरल थी। लकड़ी के चार पाये अर्थात गोड़े, बांस या लकड़ी के चार मजबूत डंडे, जूट-मूँज या सुतली से बनी तीन-चार किलोग्राम रस्सी व एक कुशल कारीगर। बस चारपाई तैयार।
चारपाई का आविष्कार कब हुआ? इस प्रश्न को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है। कोई इसे चीन का आविष्कार बताता है। कोई इसे ईसा पूर्व मोहनजोदड़ो व हड़प्पा की खुदाई से मिले अवशेषों के साक्ष्यों से प्राप्त होने का दावा करता है। धार्मिक ग्रंथो की माने तो चाहे वाल्मीकि रामायण हो या तुलसी कृत रामचरित मानस हो या वेदव्यास रचित महाभारत हो, सभी में चारपाई का उल्लेख मिलता है। अब इसका उस समय स्वरूप क्या रहा होगा?इसकी निर्माण विधि क्या रही होगी? इसका उल्लेख नहीं मिलता न तो हमें इसकी कोई जानकारी है। मेरा तो यही मानना है कि चारपाई का आविष्कार मानव की सभ्यता से जुड़ा हुआ हो सकता है। आदिमानव को भोजन, कपड़ा और मकान के तुरंत बाद विश्राम करने के लिए चारपाई की जरूरत पड़ी होगी। हालांकि मानव सभ्यता का प्रथम सोपान जमीन पर ही सोने से प्रारंभ हुआ होगा। उस समय चेतना और आवश्यकता की प्रथम उपज चारपाई ही रही होगी। स्वरूप चाहे जो भी रहा हो।
सन् 1960 से लेकर 80 का दशक चारपाई का स्वर्णिम काल माना जा सकता है। उस समय प्रत्येक घर की शोभा चारपाई ही थी। कम लागत से तैयार होने वाली देसी खटिया कैसे विस्मृत हो सकती है। आज जैसे छोटे बच्चे किसी प्रदर्शनी में जाल पर उछलते-कूदते हैं ठीक हमारा बचपन भी चारपाई पर उछल-कूद कर ही बीता। शादी-विवाह के मौसमों में चारपाई की इज्जत और भी बढ़ जाया करती थी। उन दिनों आज के जैसे टेंट हाउस नहीं हुआ करते थे। लोग घरों में अपनी आवश्यकता से कम से कम एक या दो चारपाई अतिरिक्त बनवा कर रखते थे। क्योंकि किसी के यहां रिश्तेदार आ जाए या किसी के यहां शादी हो, कौन कब मांगने आ जाए, कब देना पड़ जाए। जिनके घर शादियां सुनिश्चित रहती वे अपनी आवश्यकता के अनुसार तीन -चार दिन पहले से ही चारपाई एकत्र करने में अपनी पूरी ताकत झोंक देते थे। गांव के लगभग सभी घरों से चारपाई एकत्रित की जाती थी। चारपाई के एक पाए पर लाल रंग से चारपाई स्वामी का नाम लिख दिया जाता था जिससे चारपाई वापस करते समय फेर-बदल होने का खतरा न उत्पन्न हो। बारात विदा होते समय लड़की का पिता अपनी बेटी के लिए एक सूसज्जित नवीन चारपाई देता था। जिसे “पलंग” कहा जाता था।
धीरे-धीरे चारपाई का स्थान पूर्ण रूप से लकड़ी से बने तख्ते व बेड ने लेना शुरू कर दिया। इसके अनेक कारण थे। किंतु एक कारण यह भी था की चारपाई पर सोने से सर्वाइकल व गठिया की समस्या अत्यधिक बढ़ने लगी थी। खैर जो भी रहा हो। उन दिनों वैशाख व जेठ की दोपहरी में किसी छायादार वृक्ष के नीचे बिना बिछौना बिछी चारपाई पर सोने का आनंद अकल्पनीय था।
(लेखक:-लालबहादुर चौरसिया ‘लाल’)
*पत्रकार सँजय कुमार (निजामाबाद)*
खटिया” की “खटिया खड़ी”
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