करवा चौथ का व्रत : सामाजिक उत्थान का एक माध्यम

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अनादिकाल से ही स्त्रियों द्वारा पुरुषों को मात्र पालन पोषण करने वाले पति का संकुचित दायरा मानकर संबंध सीमित नहीं रहा है।पति के प्रति पत्नी की सोच युगों- युगों से अलौकिक के बजाय पारलौकिक रही है। शास्त्रों में इस बात का उल्लेख है कि पतिव्रत धर्म का पालन करने से स्त्रियों के अंदर पूरे ब्रह्मांड को नियंत्रित करने प्राप्त होती है और एक असीमित शक्ति समाहित हो जाती है ऐसी हमारे शास्त्रों में मान्यता है।सतयुग में सती सावित्री का नाम आपने पढ़ा होगा अथवा सुना होगा कि उनके अंदर सतीत्व का ही प्रभाव था जिसके चलते उन्होंने अपने मृत पति सत्यवान को यमराज यमराज से भी मुक्त करा लिया था। इतना ही नहीं सती अनुसूया ने अपने पतिव्रत धर्म का पालन करके ब्रह्मा जी ,विष्णु जी तथा शंकर जी को भी अपने वश में कर लिया था। महिलाएं प्राचीन काल से ही अपनी विद्वता से संपूर्ण नारी जाति को गौरवान्वित करने का कार्य किया है। गार्गी, अपाला आदि नाम कौन नहीं जानता ।बहुमुखी प्रतिभा की धनी रही हैं और अपने उत्कृष्ट कार्यों के द्वारा समाज और राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने का कार्य किया है। पार्वती जी का पहला रूप सती का था जिन्होंने अपने सतीत्व के बल पर हजारों वर्षों तक तप किया और उन्हें पुनः शिव जी पति के रूप में प्राप्त हुए। आदिकाल से अपने पति को आदर- सम्मान देने और उन्हें लौकिक पति के बजाय पति परमेश्वर के रूप में पूजकर भारत देश की सभ्यता और संस्कृति का पश्चिमी देशों की सभ्यता में जमीन आसमान का अंतर स्थापित कर दिया।उन्हीं प्राचीन परिपाटी और परंपराओं को आज भी माना जा रहा है और उन्हें अगली पीढ़ी को स्थानांतरित किया जा रहा है जिसके क्रम में आज की युवा पीढ़ी और वर्तमान समय के लोग शामिल हैं।इस व्रत के बारे में तमाम प्रकार की बातें और कथाएं प्रचलित हैं। करवा चौथ शब्द राजस्थान के सवाई माधोपुर जिले के चौथ का बरवाड़ा मंदिर से जुड़ा है जिले के बरवाड़ा गांव का नाम चौथ माता के नाम से चौथ का बरवाड़ा मंदिर नाम पड़ा। इस मंदिर की स्थापना महाराजा भीम सिंह चौहान ने की थी। हमारा देश भारत विभिन्न त्योहारों, धर्मों ,संस्कृतियों और संप्रदायों का देश है। हमारे देश में हर त्यौहार के पीछे कोई न कोई मनोवज्ञानिक ,वैज्ञानिक एवं सामाजिक कारण जुड़ा हुआ है।

जब से भारत देश की सनातन परंपरा और हिंदू धर्म का प्रभाव पश्चिमी सभ्यता ने फीका करना शुरू किया है वैसे -वैसे विदेशी संस्कृति, उनका रहन-सहन ,हाव भाव आदि हिंदू धर्म के संस्कारों पर भी सकारात्मक के बदले नकारात्मक प्रभाव डाल रहे हैं जिसका परिणाम पूरे देश और पूरी दुनिया के सामने है। हमारे धर्म और हमारी संस्कृति में जहां पति को ईश्वर का रूप मानकर उनको आदर मिलता था आज उन्हें उस दृष्टि से नहीं देखा जाता है जैसा पहले देखा जाता था। ऐसी पौराणिक मान्यताएं हैं कि करवा चौथ के व्रत के द्वारा सौभाग्यवती (सुहागिन) नारियां अपने पति को दीर्घायु रखने और उनके सौभाग्य के लिए यह व्रत रखती हैं। पूरे देश में यह त्यौहार कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को महिलाओं द्वारा अत्यंत श्रद्धा उत्साह और हर्षोल्लास पूर्वक मनाया जाता है। यह हिंदुओं का प्रमुख त्योहार है जो जम्मू, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश ,हरियाणा, राजस्थान और मध्य प्रदेश सहित पूरे देश मे बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिन गणेश जी की पूजा होती है। पति को आदर सत्कार देने और उन्हें पालक- पोषक मानकर उनकी सेवा करने की परंपरा युगों युगों से रही है । पत्नी की बीमारी की अवस्था में पति भी यह व्रत रख सकते हैं।

यह पौराणिक त्यौहार भी कहीं न कहीं किसी न किसी रूप से सामाजिक हित से जुड़ा हुआ है। इस व्रत की सार्थकता के बारे में यदि हम गहराई से विचार करें तो जो स्त्रियां प्रतिदिन अपने निर्दोष, सीधे-सादे और मासूम पति का मानसिक और शारीरिक उत्पीड़न करती हैं । उनसे दिन-रात झगड़ा- हल्ला और कलह करके उनके ऊपर हावी रहकर तानाशाही और जुल्मों सितम करती हैं क्या आज करवा चौथ के दिन 1 दिन का मात्र व्रत रखने और उनको बहुत ज्यादा सम्मान देना और उनको चलनी में देखना यदि यही प्रेम आदर सत्कार और सम्मान की भावना क्षणिक न होकर स्थाई रूप से बन जाए काश ऐसा होता तो समाज उन्नति के और नए कीर्तिमान स्थापित करता। दूसरी तरफ ऐसे पति जो अपनी निर्दोष, मासूम,सीधी-सादी और पूरी गृहस्थी की जिम्मेदारी निभाने वाली पत्नी को बेवजह मारते पीटते हैं । शराब पीकर झगड़ा हल्ला करते हैं और उन्हें जलील करने का कार्य करते हैं यहां तक की हमेशा नीचा दिखाने और तिरस्कृत करने के साथ-साथ नारी को मात्र उपभोग और भोग विलास की वस्तु समझते हैं तथा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की महिला सशक्तिकरण की धज्जियां उड़ाते हैं ऐसे व्रत के समय उनका क्षणिक प्रेम काश स्थाई रूप से हमेशा के लिए हो जाता तो समाज विकास का एक नया इतिहास लिखता। स्त्रियों और पुरुषों का यह व्यवहार “दस दिन आदरु पाईके करिले आप बखान तथा चार दिन की चांदनी फिर अंधियारी रात” वाली भावना को चरितार्थ कर रहा है जैसे श्राद्ध पक्ष आने पर लोग अपने घर अपने पूर्वजों की आत्मा को शांति दिलाने के लिए या ऐसा मानकर कि हम अपने पूर्वजों को खिला रहे हैं इसलिए कौवे को बुलाकर पकवान खिलाते हैं किंतु बाद में डंडे से मारकर भगाते हैं ।हमारे धर्म और सनातन परंपरा में जहां नारी को अर्धांगिनी माना जाता है यदि यही भावनाएं हमेशा के लिए पुरुषों और स्त्रियों की एक दूसरे के प्रति हो जातीं तो समाज और राष्ट्र उन्नति के चरमोत्कर्ष पर होता। भावनाओं में समानता न होने के कारण अपराध और अपराधीकरण के परिणाम स्वरूप सामाजिक दुष्परिणाम भी समाज में उत्पन्न होते हैं ।अर्धांगिनी शब्द के अनुसार यदि पत्नी पति का आधा अंग होती है तो पति भी उसका आधा अंग होता है । अगर हम दोनों में से किसी को कष्ट देते हैं तो दोनों को समान रूप से इस बात का एहसास होना चाहिए कि हम अपने आप को ही पीड़ा पहुंचा रहे हैं । ऐसी सकारात्मक सोच से युक्त होकर प्रत्येक पुरुष और स्त्री यदि इसी दिशा में कार्य करें तो इसका सकारात्मक परिणाम अवश्य दिखाई देगा । हमारे देश की वैदिक और सनातन परंपरा का प्रतिनिधित्व करने वाली पुरातन महिलाओं से आज की युवा पीढ़ी को प्रेरणा लेनी चाहिए तभी हमारा देश ऊंचाई की बुलंदियों को छू सकता है और प्रत्येक पुरुष को स्त्रियों के साथ कदम से कदम कंधे से कंधा मिलाकर इस प्रकार चलना चाहिए जिसस देश और समाज का सर्वांगीण विकास हो तथा लोकतंत्र को मजबूती मिल सके ।

लेखक-
रामनरेश प्रजापति
तृतीय सेमेस्टर छात्र पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग

वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय जौनपुर उत्तर प्रदेश

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