हीरा मणि गौतम (ब्यूरो चीफ)
जौनपुर – कांशीराम केवल एक नाम नहीं, बल्कि एक विचारधारा थे। एक ऐसा आंदोलन, जिसने लाखों दबे-कुचले लोगों को आत्मसम्मान और राजनीतिक अधिकार दिलाने की दिशा में अग्रसर किया। आज हम उनके जीवन के कुछ और महत्वपूर्ण पहलुओं को आपके सामने रख रहे हैं, जो कम ही लोग जानते हैं।
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कांशीराम का पहला संघर्ष: जब जागी सामाजिक चेतना
कांशीराम जी का बचपन एक सामान्य ग्रामीण पृष्ठभूमि में बीता। उन्हें अपने परिवार और समाज में जातिगत भेदभाव ज्यादा महसूस नहीं हुआ था, लेकिन जब वे उच्च शिक्षा और नौकरी के लिए बाहर निकले, तब उन्हें असली हकीकत का सामना करना पड़ा।
उनकी सामाजिक चेतना उस समय और प्रखर हो गई जब उन्होंने सरकारी नौकरियों में भेदभाव देखा। एक बार उनके एक साथी कर्मचारी को केवल उसकी जाति के कारण प्रमोशन नहीं दिया गया। यह देखकर उन्होंने महसूस किया कि राजनीतिक और सामाजिक बदलाव के बिना दलितों और पिछड़े वर्गों की स्थिति नहीं बदलेगी।
बामसेफ का प्रभाव और संगठित शक्ति
1978 में उन्होंने ‘बामसेफ’ (Backward and Minority Communities Employees Federation) की स्थापना की। इसका उद्देश्य केवल राजनीतिक नहीं था, बल्कि यह एक सामाजिक संगठन था जो शोषित समाज के पढ़े-लिखे लोगों को संगठित करने के लिए काम कर रहा था।
कांशीराम मानते थे कि यदि सरकारी संस्थानों और प्रशासन में दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक मजबूत होंगे, तो वे अपने समाज के लिए भी काम कर सकेंगे। यही कारण था कि उन्होंने पहले सरकारी कर्मचारियों को संगठित किया और फिर उन्हें बहुजन आंदोलन की मुख्यधारा से जोड़ा।
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“राजनीति ही असली बदलाव का जरिया है”
धीरे-धीरे कांशीराम जी को एहसास हुआ कि केवल सामाजिक संगठन से काम नहीं चलेगा। अगर सत्ता की चाबी बहुजन समाज के हाथ में होगी, तभी असली बदलाव आएगा। इसी सोच के साथ उन्होंने 1981 में ‘डीएस-4’ (दलित शोषित समाज संघर्ष समिति) की नींव रखी और 1984 में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की स्थापना की।
उनका सबसे बड़ा नारा था—
“जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी!”
उन्होंने बहुजन समाज को समझाया कि सत्ता सिर्फ ऊँची जातियों का अधिकार नहीं है, बल्कि हर उस समुदाय का है, जिसकी जनसंख्या ज्यादा है।
पहली बार जब मायावती को मिली ताकत
1993 में उत्तर प्रदेश में बसपा और समाजवादी पार्टी (सपा) के गठबंधन से सरकार बनी। यह पहली बार था जब बसपा सत्ता में आई और दलितों के लिए एक बड़ा राजनीतिक मंच तैयार हुआ।
लेकिन 1995 में गेस्ट हाउस कांड के बाद यह गठबंधन टूट गया, और फिर 2 जून 1995 को मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं। यह भारतीय राजनीति का एक ऐतिहासिक पल था।
“मैं पद के पीछे नहीं, बदलाव के पीछे हूँ”
कांशीराम जी की सबसे बड़ी खासियत थी कि उन्होंने कभी खुद सत्ता में आने की कोशिश नहीं की।
उन्होंने हमेशा कहा—
“मुझे प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री बनने में दिलचस्पी नहीं है, मुझे 1000 मायावती बनाने हैं!”
उनका सपना था कि पूरे देश में बहुजन समाज के ऐसे नेता तैयार हों, जो सत्ता में आकर अपने समाज के लिए काम करें।
कांशीराम की विरासत और आज की राजनीति
कांशीराम जी ने 9 अक्टूबर 2006 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया, लेकिन उनका आंदोलन आज भी जारी है। बसपा उनके विचारों पर आगे बढ़ रही है, लेकिन क्या उनका सपना पूरी तरह साकार हो पाया है?
आज जब सामाजिक न्याय की बात होती है, तो सवाल उठता है
क्या बहुजन समाज ने अपनी पूरी राजनीतिक शक्ति हासिल कर ली है?
क्या आज भी सत्ता के दरवाजे उनके लिए उतने ही खुले हैं, जितने अन्य जातियों के लिए?
क्या अभी भी अधूरा है कांशीराम का सपना?
कांशीराम जी ने राजनीति में सामाजिक न्याय की एक मजबूत नींव रखी, लेकिन क्या यह आंदोलन अभी पूरा हुआ?
आज की राजनीति में बहुजन समाज के सामने नई चुनौतियाँ हैं। अब जरूरत है कि कांशीराम जी की विचारधारा को सिर्फ किताबों में न रखा जाए, बल्कि इसे ज़मीनी हकीकत में बदला जाए।
उनका संघर्ष हमें सिखाता है कि सिर्फ वोट देना काफी नहीं, बल्कि सत्ता में भागीदारी लेना जरूरी है।
क्या कांशीराम का सपना अधूरा है या पूरा? यह फैसला बहुजन समाज को खुद लेना होगा।
(समाप्त)