नई दिल्ली :लखनऊ में सीएए-विरोधी प्रदर्शनकारियों (CAA NRC Protesters) के पोस्टर लगाने पर सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने कहा कि यह बेहद महत्वपूर्ण मामला है. न्यायालय ने उत्तर प्रदेश सरकार से पूछा कि क्या उसके पास ऐसे पोस्टर लगाने की शक्ति है. लखनऊ में सीएए विरोधी प्रदर्शकारियों के पोस्टरों पर उच्चतम न्यायालय (Supreme Court) ने उत्तर प्रदेश सरकार (Uttar Pradesh Government) से कहा कि फिलहाल ऐसा कोई कानून नहीं है जो आपकी इस कार्रवाई का समर्थन करता हो.इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने इस बारे में इलाहाबाद हाईकोर्ट (Allahabad High Court) के फैसले पर रोक लगाने से इनकार कर दिया. शीर्ष अदालत ने इस मामले की विस्तृत सुनवाई के लिए इसे तीन सदस्यीय पीठ को भेजने का भी निर्णय लिया. मामले की सुनवाई के दौरान शीर्ष अदालत ने कहा कि आप यानी उत्तर प्रदेश सरकार ऐसा नहीं कर सकती. इस मामले में आरोपी पूर्व आईपीएस अधिकारी एसआर दारापुरी (SR Darapuri) की ओर से वरिष्ठ वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने शीर्ष अदालत में पैरवी की.
दरअसल, उत्तर प्रदेश सरकार ने नागरिकता संशोधन कानून (Citizenship Amendment Act) के विरोध प्रदर्शन के दौरान हुयी हिंसा और तोड़फोड़ के आरोपियों के पोस्टर हटाने के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ बुधवार को शीर्ष अदालत में अपील दायर की थी. अदालत ने नौ मार्च को लखनऊ प्रशासन को इनके पोस्टर हटाने के यह आदेश दिए थे. हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को यह भी आदेश दिया था कि कानूनी प्रावधान के बगैर ऐसे पोस्टर नहीं लगाये जाएं. अदालत ने आरोपियों के नाम और फोटो के साथ लखनऊ में सड़क किनारे लगाये गये इन पोस्टरों को तुरंत हटाने का निर्देश देते हुये टिप्पणी की थी कि पुलिस की यह कार्रवाई जनता की निजता में अनावश्यक हस्तक्षेप है.अदालत ने लखनऊ के जिला मजिस्ट्रेट और पुलिस आयुक्त को 16 मार्च या इससे पहले अनुपालन रिपोर्ट दाखिल करने का भी निर्देश दिया था. इन पोस्टरों को लगाने का मकसद प्रदेश की राजधानी में 19 दिसंबर को आयोजित नागरिकता संशोधन कानून विरोधी प्रदर्शनों के दौरान सार्वजनिक संपत्ति को कथित रूप से नुकसान पहुंचाने वाले आरोपियों को शर्मसार करना था.
इन पोस्टरों में प्रकाशित नामों और तस्वीरों में सामाजिक कार्यकर्ता एवं नेता सदफ जाफर, और पूर्व आईपीएस अधिकारी एस आर दारापुरी के नाम भी शामिल थे. ये पोस्टर लखनऊ के प्रमुख चौराहों पर लगाये गये हैं. हाईकोर्ट ने अपने आदेश में टिप्पणी की थी कि प्राधिकारियों की इस कार्रवाई से संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त मौलिक अधिकार का हनन होता है. इस अनुच्छेद के अंतर्गत किसी भी व्यक्ति को कानून द्वारा प्रतिपादित प्रक्रिया का पालन किये बगैर उनकी वैयक्तिक स्वतंत्रता और जीने के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता. हाईकोर्ट ने कहा था कि इस जनहित याचिका की विषय वस्तु को लेकर उसे इसमें संदेह नहीं कि सरकार की कार्रवाई और कुछ नहीं बल्कि जनता की निजता में अनावश्यक हस्तक्षेप है.
सुप्रीम कोर्ट ने योगी सरकार को लगाई फटकार,किस नियम के तहद CAA विरोधियों का लगाया पोस्टर
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